Saturday, July 17, 2010

{सफ़र- बीज से पेड़ तक का}

एक बीज था में, जब मुझको किसी ने बोया था ज़मी में,
चुपचाप किसी कोने में,बस सोया था में नमी में!

सोच रहा था सपनो में ,कैसी होगी मिट्टी से बाहर की वो दुनिया,
इतने में मेरी नींद खुली,और धक्का सा कुछ आया ,
देखा तो बारिश की बूँद को अपने ऊपर मैंने पाया,
कुछ ही पल में वो सिमट गई, और तेज गर्मी ने अपना कहर फिर ढाया,

अभी तो जमी के अन्दर था, तो इतना कुछ हो आया,
क्या होगा बाहर जाकर, ये सौंच के में घबराया !

पर बीज था में अंकुर तो मेरे जीवन का था आना,
ऊपर आया तो जीवन क्या होता है ये मैंने जाना,
एक अंकुर से मैंने खुद को एक पौधे में खुद को ढाला,

कितनी जल्दी हो गया ये सब कुछ -ये जान नहीं में पाया,
कल तक था जो एक बीज ,आज विशाल पेड़ कैसे बन आया !

10 comments:

  1. नीलमजी
    ब्लॉग संसार में आपका स्वागत है !
    सफ़र : बीज से पेड़ तक अच्छी कविता है , बधाई !

    लेकिन वर्तनी की सवधानी रखें तो सोने पर सुहागा !

    शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , आइए…
    शुभकामनाओं सहित …
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  2. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  3. शानदार लेखन, धन्यवाद ! हो सके तो निम्न आलेख को पढ़ने का कष्ट करें-http://www.pravakta.com/?p=11515

    स्त्री को दार्शनिक बना देना!

    -डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
    व्यक्ति जिस समाज, धर्म या संस्कृति में पल-बढकर बढा होता है, व्यक्ति का जिस प्रकार से समाजीकरण होता है, उससे उसके मनोमस्तिष्क में और गहरे में जाकर अवचेतन मन में अनेक प्रकार की झूठ, सच, भ्रम या काल्पनिक बातें स्थापित हो जाती हैं, जिन्हें वह अपनी आस्था और विश्वास से जोड लेता है। जब किन्हीं पस्थितियों या घटनाओं या इस समाज के दुष्ट एवं स्वार्थी लोगों के कारण व्यक्ति की आस्था और विश्वास हिलने लगते हैं, तो उसे अपनी आस्था, विश्वास और संवेदनाओं के साथ-साथ स्वयं के होने या नहीं होने पर ही शंकाएँ होने लगती हैं। इन हालातों में उसके मनोमस्तिष्‍क तथा हृदय के बीच अन्तर्द्वन्द्व चलने लगता है। फिर जो विचार मनोमस्तिष्‍क तथा हृदय के बीच उत्पन्न होते हैं, खण्डित होते हैं और धडाम से टूटते हैं, उन्हीं मनोभावों के अनुरूप ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निर्मित या खण्डित होना शुरू हो जाता है। जिसके लिये वह व्यक्ति नहीं, बल्कि उसका परिवेश जिम्मेदार होता है।
    स्त्री के मामले में स्थिति और भी अधिक दुःखद और विचारणीय है, क्योंकि पुरुष प्रधान समाज ने, स्वनिर्मित संस्कृति, नीति, धर्म, परम्पराओं आदि सभी के निर्वाह की सारी जिम्मेदारियाँ चालाकी और कूटनीतिक तरीक से स्त्री पर थोप दी हैं। कालान्तर में स्त्री ने भी इसे ही अपनी नियति समझ का स्वीकार लिया। ऐसे में जबकि एक स्त्री को जन्म से हमने ऐसा अवचेतन मन प्रदान किया; जहाँ स्त्री शोषित, दमित, निन्दित, हीन, नर्क का द्वार, पापिनी आदि नामों से अपमानित की गयी और उसकी भावनाएँ कुचली गयी है, वहीं दूसरी ओर सारे नियम-कानून, दिखावटी सिद्धान्त और नकाबपोस लोगों के बयान कहते हैं, कि स्त्री आजाद है, पुरुष के समकक्ष है, उसे वो सब हक-हकूक प्राप्त हैं, जो किसी भी पुरुष को प्राप्त हैं और जैसे ही कोई कोमलहृदया इन भ्रम-भ्रान्तियों में पडकर अपना वजूद ढँूढने का प्रयास करती है, तो अन्दर तक टूट का बिखर जाती है। उसके अरमानों को कुचल दिया जाता है, ऐसे में जो उसकी अवस्था (मनोशारीरिक स्थिति) निर्मित होती है, उसको भी हमने दार्शनिक कहकर अलंकारित कर दिया है। जबकि ऐसे व्यक्ति की जिस दशा को दार्शनिक कहा जाता है, असल में वह क्या होती है, इसे तो वही समझ सकता/सकती है, जो ऐसी स्थिति से मुकाबिल हो।

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  4. इस नए ब्‍लॉग के साथ आपका हिंदी चिट्ठाजगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  5. बहुत बढ़िया!! हिंदी चिट्ठाजगत में स्‍वागत है

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  6. बहुत बढ़िया!

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  7. A very gud n Inspirational Poem.. Keep writing keep posting...

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  8. very nice, u have expressed the anxiety of getting in to the new environment very well, u deserve an applaud...............

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  9. Thanks for sharing. It's very good poem for life

    Cheers,
    Nancy Rechard
    http://www.travelpackcanada.com/

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  10. Great expression on possible opportunity !!

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